पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१९५

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विद्यापति । १८१ मानिनि अपनेहु भने अनुमान । रुसइते नहु बोल अगेन ॥४॥ हाटक घटन सिरीफल सुन्दर कुचजुग कुटि करु आधे ।। पानि परस रस अनुभव सुन्दर न करु मनोरथ बाधे ॥ ६ ॥ भनइ विद्यापति सुन वरजौवति विभव दया थिक सारा । माह छाह ककरो नहि भावय ग्रीपम प्रान पियारा ॥८॥ | माधव । ३५५ वदन चॉद तौर नयन चकोर मोर | रूप अमिय रस पीवे । अधर मधुरि फुल | पिया मधुकर तुल विनु मधु कत खन जीवे ॥ २ ॥ मानिनि मन तोर गढ़ल पसाने । कके न रभसे हसि किछु न उतर देसि सुखे जाओ निसि अवसाने ॥ ४ ॥ पर मुखे न सुनसि निअ मने न गुनसि न बुझसि छइलरि बानी । अपन अपन काज कइते अधिक लाज अरयित आदर हानी ॥ ६ ॥ कवि भने विद्यापति अरेरे सुन जुवति नेह नुतन भेल माने। लखिमा देवि पति सिवसिंह नरपति रूपनरायन जाने ॥ ८ ॥