पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२०२

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१८६ विद्यापति । साधव । मानिनि मान आवहू कर ओड़ । अनि बहलि हे रहलं अछ थोड़ ॥२॥ गुनमति भए गुन न धरिअ गाए । सुपुरुस दाने अधिक फल होए ॥४॥ बरा एक हेरह मन ताप । पेम लता तोड़ले बड़ पाप ॥६॥ लोचन भमर हमरे कह आस । तुझे मुख पङ्कज करो विलास ॥८॥ भनइ विद्यापति मने गुनि भान । सिवसिंह राए रसिक रस जान ॥१०॥ माधव । ३६५ मानिनि कुसुमे रचलि सेजा मान महध तेज जीवन जउवन धने ।। आजुकि रअनि जदि विफले जाइति पुन कालि मैले के जान जिवने ॥२॥ मानिनि मन्द पवन बह न दीप थिर रहे नखतरे मलिन गगन भर ।। तोर वदन देखि भान उपजु मोहि केस फुल उपर भमरे ॥४॥ माधव । मानिनि अरुन पूरब दिसा बहलि सगरि निसा गगन मगन भेल चन्दा । मुदि गैलि कुमुदिनि । तइयो तोहर धनि मूदल मुख अरविन्दा ॥२॥