पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२२२

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२०६ विद्यापति ।

दूती । ४ ०७ सुन सुन गुनवति राधे । माधव बधि कि साधवि साधे ॥२॥ चॉद दिनहि दिन हीना। से पुन पलटि खने खने खाना ॥४॥ अङ्गुरी बलया पुन फेरी । भाङ्गि गढ़ायब बुझि कत चेरी ॥६॥ तोहर चरित नहि जानी । विद्यापति पुन शिरे कर हानी ॥८॥ दूती । ४०८ नारङ्गि छोलङ्गि कौरि कि वैली । कामे पसाहलि चर फेली ॥ ३॥ आवे भैलि ताल फल तुले । कँहा लए जाइति अलप मुले ॥ ४ ॥ से कान्ह से हमे से धनि राधा । परुव पेम न करिअ वाधा ॥ ६ ॥ जातक केतक सरस माला । तुअ गुन गहि गाथए हारा ॥ ६ सरस निरस तोह के बुझ आने । कहालए चलति भेल विमाने ॥१०॥ सरस कवि विद्यापति गावे । नागर नेह पुनमति पाव ।। सखी । • ४०६ एके तुहु नागर सब गुने गरि वइससि चतुरि समाज । अपन बात आप नहि समुफसि हठे नट कएल सब काज ॥२॥