पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२४२

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२२८ विद्यापति । दूती । ४४८ कमल भमर जग अछए अनेक । सबै तह से बड़ जाहि विवेक ॥२॥ मानिनि तोरित कर अभिसार । अवसर थोडेहु बहुत उपकार ॥४॥ मधु नहि देलह रहलि की खागि । से सम्पति जे पाहत लागि ॥६॥ अजित लए तुलना तुअ देल । जाव जीव अनुतापक भेल ॥६॥ तोने नहि मन्द मन्द तुअ काज । भले मन्द हो भन्दा समाज ॥१०॥ भनइ विद्यापति दुति कह गोए । निअ क्षति विनु परहित नहि होए ॥१२॥ ठूती । ४४६ थिर नहि उजवन थिर नहि देह । थिर नहि रहए बालभु सञी नह थिर जन जानह ई संसार । एक पए थिर रह पर उपकार । सुन सुन सुन्दरि कएलह मान । की परसंसह तोहर गी कउलति कए हरि आनल गैह । मुर भाँगल सन कएलई सिंह आरति आनल विघटित रङ्ग । सुतरिक राव सरिस भेल सङ्ग विमुखि चलल हरि बुझि बेवहार । आवे कि गाश्रोत कवि कण्ठहार ॥ सखी । ४५० चाहइते अधर निअल नहि लिास धरइते मौललए चॉहीं । सुपहू सिनैहे न केलि रति भङ्गलए तोहि सनि पापिनि नाहीं ॥२॥