पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२४९

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विद्यापति । २३७ मोहि पति भल भेल ओतहि ओहो गैल कि फल विकल कए देहे । करिअ जतन पए जो पुनु जोलि हो टूटल सरस सिनेहे ॥४॥ जुनु काहू हे जतने दुहु परिहर के ॥५॥ दिन दस जौवन तेहि अनाएत मन तहु पर्छ परकारे । तुअ परसाद विखाद नयन जल काजरे मोर उपकारे ।७।। ते तन्नो करवि मसि मअन पास वैसि लिखि लिखि देखवासि तोही । तार हार घनसार सार रे सेलिव सन्ताओत मोही ॥६॥ कामिनि केलि भान थिक माधव आओ कुमुदिनि सो चॉदै । दुरहु दुरहु तोहें पहु तो बुझह दुहु दरसने कत आनन्दे ॥११॥ भनइ विद्यापति अरे वर जौवति मेदिनि मदन समाने । लखिमा देविपति रूपनराएन सुखमा देवि रमाने ॥१३॥ -०५------ सखी । | ४६८ राधामाधव रतनहि मन्दिरे निवसय शयनक सुखे ।। रसे रसे दारुन दन्द उपजल कान्त चलल ताहि रोखे ॥२॥ नागर अञ्चल करे धरि नागरि हसि मिनति कुरु आधा ।। नागर हृदय पॉच शर हानल उरज दराश मन वाधा ॥४॥ देख सखि झुठक मान । कारण किछु बुझई न पारिय तय काहे रोखल कान ॥६॥ रोख समापि पुनु रहसि पसारल ताहि मथध पॉच वान्, अवसर जानि मानवत राधा विद्यापति कवि भान )