पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२५०

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विद्यापति । सखी । ४ ६५ धनि भेलि मानिनि सखिगन माझ । अनुनय करइते उपजय लाज || २ ॥ पिरीतक आरति विरति न सहइ । इङ्गित झङ्गिए दुहु सब कई ॥ ४॥ साह संचेतन कहु सयान । मनहि समधिल मन अभिमान ॥ ६ ॥ अधरे सुरलि जौ धयल मुरारि । फोई कवरि धनि बोधि समारि ॥८॥ जौ निज पुर धयल मुरारि । सखि लाख अनतय चलु वर नारे॥१॥ हीरे जब छाया कर धनि पाय | धनि सम्भ्रमें वइसलि कर लीय ॥१२॥ कह कविशेखर बुझय सैयान । इड़िते रस पसारल पंचवान ॥१४॥ राधा। सव संवतहु कह सहले नहिअ । जिवजनौ जतने जोगओले रहिअ ॥ ३॥ परास हलह जनु पिसुनक बोल । सुपुरुष पेम जीव रह ओल ॥ ४ ॥ मञ सपनेहु नहि सुमरञो दे । अइसन पेम तौलि हल जनु केॐ ॥ रहिये नुकओले अपना गैह । खेल कौसले टुटि जाएत सिनह । विमुख बुझाए न करिअए वोल । मुख सुखे धेङ्गर कोट पटार चङ्गुर कीट पटोर १११ ०॥ राधा । ४६७ एत दिन छल पि तोह हम जेहे हिश्रा सीतल सील कलाएँ । तोह ने कान धरु विनति दूर करु दुरजन दुरित अलाप ॥३॥