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३४० विद्यापति ।
राधा । ४७४ माधव कि कहब तोहरो गेयाने । र कयल तव कर मुनल दुहु काने ॥२॥ . आयल गमनक वेरि न नीन टरु तइ किछु पुछियो न भेला । एहन करमहीनी हम सनि के धनी कर से परसमनि गेला ॥४॥ जो हम जनितहुं एहन निठुर पहु कुच कञ्चन गिरि साधि । कौशल करतल वाहुलता लय दृढ़ कए रखितहुं वांधि ॥६॥ । इ सुमिरिय जव जो मरिये तव वुझि पड हृदय पषाने । हेमगिरि कुमरि चरन हृदय धरि कवि विद्यापति भाने ॥८॥' राधा । ४७५ रोपलह पहु लहु लातिका आनि । परतह जतने पटवितह पानि हँइ अरथित उपजित भेल से। तो विसरिल भल बोलत के ।। ४ । माधव वुझल तोहर अनुरोध । हेरितहुँ कयलह नयन । एकहुं भवन वसि दरशन वाध । किछु न वुझिय पहु कि अपराध सुपुरुप वचन सब विधि फर। अमरखे विमरख न करिअ दूर ॥ भनद् विद्यापति एहो रस जान ।रस बुझासवासंह लाखमा दुई कासवासह लाखमा देइ रमान ॥१२