पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२५६

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३४३ विद्यापति । राधा । ४७८ सवे परिहरि अएलाहु तुय पास । विसरि न हलवे दृए विसवास ॥२॥ अपने सुचेतन कि कहब गए । तइसन करव उपहास न होए ॥४॥ ए कन्हाई तोहर वचन अमोल । जाव जीव प्रतिपालव बोल ॥६॥ भल जन वचन दुआओ समतूल । वहुल न जानए रतनक मूल ॥८॥ हमें अवजा तुअ हृदय अगाध । बड भए खेमिअ सकल अपराध ॥१०॥ भनइ विद्यापति गोचर गोए । सुपुरुष सिनेह अन्त नहि होए ॥१२॥ राधा । ४७६ पएर पड़ि विनवञो साजना रे जति अनुचित पडु मोर ।। ।। जनु विघटावह नेहरा रे जीवन जौवने थोर ॥२॥ पलटह गुननिधि तोहे गुनरसिया जीवे करह वरु साति ॥३॥ पुछलेहु इ तरुन आपाह रे अइसना लागए मोहि भान । की तुअ मन लागला रे किए कुशल पंचवान ॥५॥ काठ कठिन हिअ तोहरा रे दिनहु दया नहि तोहि ।। केसनराएन गाविहा रे निरमम काह्नहि मोहि ॥७॥ ।