पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२५९

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विद्यापति ।।

भनइ विद्यापति सुनह सुन्दर चिते जनु मानद सङ्का । दिवस वाम सखि सवे खन न रहए चादहु लागु कलङ्का ॥८॥ राधा। ४८४ तोह हम पेम जते दुरे उपजल सुमरवि से परिपाटीं । आवे पररमनि रङ्ग रस भुलला हे कोने का हम घाटी ॥२॥ भमरवर मोरे बोले बोलव कह्लाइ । विरह तन्त जदि बुझथि मनोभव की फल अधिक बुझाइ ॥४॥ तुलए सुमेरु साधु जन तुलना सबका धइज धने । तहे नि लोभै वचन आवे चुकला है गरिमा धरवि कोने ॥६॥ पुरुष हृदय जल दुअओ सहजे चल अनुबन्धे बांध थिराइ । से जदि फुटल रह सहस धारे वह उचै नीचे पथे जाइ ॥८॥ भनइ विद्यापति नवं कविशेखर पुहुवी दोसर कहां ।। साह हुसेन शृङ्ग सम नागर मालति सैनिक जहा ॥१०॥ --- -- सखी। । ४८५. कुन्तल कुसुम निमाल न भेल । नयनक काजर अधर न गैल ॥२॥ कनक धराधर नहि ससिरेह । कोने पर कामे प्रकाशल नेह ॥४॥