पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२६०

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२४४ विद्यापति । नागर मोहि मने अनुताप । कएलाहु साहस सिधि न पावित्र अइसन हमर पाप ॥६॥ तोह सन पहु गुन निकेतन कएलह मोर निकार ।, हमहु नागरि सवे सिखाउवि जनु कर अभिसार ॥८॥ कत न नागर गुनक सागर सवे न गुनक गेह ।। तोह सन जग दोसर नाहि ते हमे लाल नेह ॥१०॥ केलि कुतूहल दुरहि रहओ दरशनहु सन्देह ।। जामिनि चारिम पहर पाओल आवे जाओं निज गेह ॥१२॥ मोरिओ सब सहचरि जानति होइति इ वडि साटि । विहि निकारुन परम दारुन मरो हृदय फाटि ॥१४॥ भर्ने विद्यापति सुनह जुवति शासी न अवसान । सुचिरे जीवो राए सिवासिंह लखिमा देवि रमान ॥१६॥ राधा । ४८३ हे माधव भल भेल कएलह कुले । काच कञ्चन दुहु सम कए लेखेलह न जानह रतनक मूले ॥२॥ तोंद हम पेम जते दरे उपजल समरह से आवे ठामे ।। आवे पररमनि रंगे हे भुललाई विहुसिहु हसि हेर वामे ॥४॥ ऐसन करम मोर तें तोहे जदि भोर हमे अबला कुल नारी ।। पिसुनक वचन कान जदि धएलह साति न कएलह विचारी ॥६॥