पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२६१

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• विद्यापति ।। २४५ भनइ विद्यापति सुनह सुन्दरि चिते जनु मानद सङ्का । दिवस वाम सखि सवे खन न रहए चाहु लागु कलङ्का ॥८॥ राधा। ४८४ तोह हम पेम जते दुरे उपजल सुमरवि से परिपाटी । आवे पररमनि रङ्ग रस भुलला हे कोने कला हम घाटी ॥२॥ भमरवर मोरे बोले बोलव कह्लाइ । विरह तन्त जदि वुझथि मनोभव की फल अधिक बुझाई ।।४।। तुलए सुमेरु साधु जन तुलना सबका धइरज धने । तोहे निअ लोभै वचन आवे चुकला हे गरिमा धरवि कोने ॥६॥ पुरुप हृदय जल दुअग्रो सहजे चल अनुवन्धे बांध थिराइ । से जदि फुटल रह सहस धारे वह उचैश्रो नीचे पथे जाइ ॥८॥ (भनइ विद्यापति नव कविशेखर पुहुवी दोसर कहा । साह हुसैन भृङ्ग सम नागर मालति सैनिक जहाँ ॥१०॥ सखी । ४८५ ल कसम निमाल न भेल । नयनक काजर अधर न गेल ।।२।। .. कनक धराधर नहि ससिरेह । कोने पर कामे प्रकाशाल ३