पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२६२

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४६ विद्यापति । AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAw राधा । - ए सखि ए सखि पुरुष अञान । भुजंग भनावथि रङ्ग न जान ॥६॥ दुरस सुनिय समय पचवान । परतख चाहि नहि के अनुमान ॥८॥ उपगति भेलिहु इ भेलि साति । अनुसय छितहि पोहाइलि राति ॥१०॥ भनइ विद्यापति एहू रस भने । राए सिवसिंह लाखमा देइ रमाने ॥१२॥ दूती । ४८६ आदरि अनलह धएलह वारि । चर न छड़लह वदन निहारि ॥२॥ सुदृढेको केम न वेधलह फोए । सबे रस सुन्दरि धएलह गए ॥४॥ आवे कि पूछसि राहि भल नहि भेल। जतने आनल काह्न तेरे दोसे गेल ॥६॥ गुनिगन पथ सह लगलउहे भार । चर हीर हराएल मोर ॥६॥ सखिजन सोंपइते भेल हे राग । गेल पाइअ ज हो बड़ भाग ॥१०॥ राधा । ४८७ एत दिन छलि नव रीति रे । जल मीन जेहन पिरीति रे ॥ २ ॥ एक हि वचन वीच भेल रे । हसि पहू उतरो न देल रे ॥ ४ ॥ एकहि पलङ्ग पर काह्न रे । मोर लेख दुर देस भान रे ॥ ६ ॥ जाहि वन के न डोल रे। ताहि वन पिग्री हसि बोल रे ॥ ८ ॥ धरव जोगियाक भैस रे। करव मने पहुक उदेस रे ॥१०॥ भनइ विद्यापति भान रे । सपुरुप न कर निदान रे ॥१२॥