पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२६५

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विद्यापति ।। २४६ जद दूपन गुन पहु न विचार । बढ भए पसरओ पिसुन पसार ॥१०॥ परिजन चित नहि हित परयाव । धरसने जीव कतए नहि धाव ॥१२॥ हम अवधारि हलल परकार । विरह सिन्धु जिव दए वरु पार ॥१४॥ भनइ विद्यापति सुन वरनारि । धैरज कए रह भेटत मुरारि ॥१६॥ राधा। કદ ૨ कत न जीवन सङ्कट परए कत न मीलए नीधि । उत्तिम तैअओ सता न छाड्य भल मन्द कर वीधि ॥२॥ साजनि गए वुझावह कानु । उचित चौलइते जे होश सहे दैन भाखह जनु ॥४॥ जैसनि सम्पति तैसनि सति पुरुप अइसन छला । प्रान मान वेवि जदि प्रोन जे राखअ ता ते मरन भला ॥६॥ राधा । ४६४ कत गुरु गजन दुरजन बोल । मने किछु न गणल ओ रसे भेल ॥ २ ॥ कुलजा रीति छोड़ जसु लागि । से अव विसरल हमर अभागि ॥ ४ ॥ सुमरि सुमरि सखि कहवे मुरारि । सुपुरुख परिहर दौख विचार ॥ ६ ॥ जे पुनु सहचरि होय मतिमान । करय पिशुन वचन अवधान ॥ ६॥ नारि अवला हम कि बलवान । तुहुँ रसनानन्द गुणक निधान ॥१०॥ 22