पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२७३

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विद्यापति। २५७ दूती । ५१० कतए गुजा कतए फल । कतए गुजा रतन तूल ॥ ३ ॥ जे पुनु जानए मरम साच । रतन तेज न किनए काच ।। ४ ।। अरे रे सुन्दर उतर देह । कञोन कञोन गुन परेखि नेह ॥ ६ ॥ अनेके दिवसे कएल मान । मधु छाड़ शान न मागए दान ॥ ८॥ ऐसन मुगुध थीक मुरारि । गवउ भखए अमिञ छारि ॥१०॥ दूती। तुअ विसवासे कुसुमे भरु सेज । वसन्तक रजनी चॉदक तेज ॥ २ ॥ मन उतकण्ठित कतए न धाव । दह दिस सुन नयन भमि आव ॥ ४ ॥ | हरि हरि हरि तुय दरसन लागि । नागरि रयनि गमाउलि जागि ॥ ६ ॥ सुपुरुस भए नहि करिअए रोस । वड़ भए कपटी ई बड़ दोष ॥ ८ ॥ भनइ विद्यापति गवि बोल । जे कुल रिखए सेहे अमोल ॥१०॥ सखी । रसिकक सरवस नागरि वानि । भल परिहर न आदरि यानि ॥ २ ॥ हृदयक कपट वचने पियार । अपने रसे उकट कुसियार ॥ ४ ॥ यावे कि वोलव सखि विसरल देओ। तुअ रूपे लुबुध भही नहि केो ॥ ६ ॥ ३३