पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२७८

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२६० विद्यापति ।

ठूती । ५१७ वचन रचन दए आनलि राही । अवसर जानि विसरलह ताहीं ॥ २ ॥ तहे बड़ नागर औ बड़ि भोरी । अमिय पियोलह विप सौ घोरी ।। ४ ।। चल चल माधव भल तुअ काजे । जत बोललह तत सकल बेजे ॥ ६ ॥ सुपुरुख जानि कएल विसवासे । के पतिएत फुलल अकासे ।।८।। | पुरुख निठुर हिअ परिचय भेल । परधन लागि निजओ दूर गेल ॥१०॥ निअ मने न गुनल ने पुछल के। अपन चरन अपने देल छेओ ॥१२॥ | भनइ विद्यापति एहू रस जान । राए सिवसिंह लखिमा देइ रमान ॥१४॥ टूती । ५१८ अदिरि आनलि परेर नारीं । कता कठिन इतर तारी ॥ २ ॥ गेले सम्भव तोहहु तेहा । एखने पलट जाएव कँहा ॥ ४ ॥ न कर माधव हेनि उकती । पुनु पठावए चाहिअ दूती ॥ ६ ॥ आनि विसरिअ भावक भोरा । गरुश नीलज मानस तोरा ॥८॥ हथिक रतन तेजह कहे। के बोल नगर नागर तोहे ॥१०॥ दूती । ५१६ ओतए छलि धनि निग्र पिय पास । एतए आइलि धनि तुअ Eि एतए न श्रोतए एकत्रो नहि भेल । मदने आनि आहुति कए दाल आहुति कए देलि ॥ ४ ॥