पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२८२

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२६४ विद्यापति । ऎसन करज करव जव हात । तबहु तुय सञ मरमक वात ॥१०॥ भनइ विद्यापति सुन चरकान । मान रहु पुन जाउ परान ॥१३॥ राधा । ५२६ कुलकामिनि भए कुलटा भेलिहु किछ नहि गुनले आगु । सवे परिहरि तुअ अधीन भेलिह आवे इति लागु ॥२॥ माधव जनु होअ पेम पुराने । नव अनुराग ओल धरि राखघ जे न विघट मोर माने ॥४॥ सुमुखि वचन सुनि माधवे भने गुनि अङ्गिरल कए अपराधे । सुपुरुप सञो नैह कवि विद्यापति कह ओल धरि हो निरवाहे ॥ राधा। ५२७ माधव जगत के नहि जान । आरित आकुल जञा केश्रो आवए बड़ कर समधान ॥२॥ हमें जे भाविनि भाव जामिनि अएलाहु जानि सुठाम । तोहे सुनागर गुनक अगर पूरत सकल काम ॥४॥ कत न मन मनोरथ अछल सवे निवेदव तोहि । पूरुव पुने परीनति पोलाहे पछि न पुछह मोहि ॥६॥