पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२८३

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२६५ विद्यापति ।। हमे हेरि मुख विमुख कएलह मन वेआकुल भेल । चाहे जो परे हीत उदासिन जुग पलट न गेल ॥८॥ एत सुनि हरि हसि हेरु धनि कयलह्नि सौर सदान । तखने सुन्दरि पुलके पुरलि कवि विद्यापति भान ॥१०॥ राधा । ५२८ माधव आए कैवार ऊवेरल जाहि मन्दिर वस राधा । चीर उघारि आध मुख हेरलह्नि चॉद उगल जनि आधा ॥२॥ माधव विलछि वचन बोल राहीं ।। जउवन रूप कलागुने गरि के नागरि हम चाहीं ॥४॥ चैर कपूर पान हमे साजल पाअस अओं पकमाने । सगरि रअनि हमे जागि गमाओल खण्डित भेल मोर माने ॥६॥ तुअ चञ्चल चित नहि थपलायित महिमा भार गभीरे । कुटिल कटाख मन्द हसि हेरह भितरहु श्याम शरीरे ॥८॥ भनइ विद्यापति सुन वर जउवति चिते जनु मानह आने । राजा सिवसिंह रूप नरायन लखिमा दैवि रमाने ॥१०॥ सखी । ५२६ मुख जव माजल रसिक मुरारि । सुन्दर रहल कराह करै वारि ॥२॥ प्रेम संबहु गुन दहु कय लेल । मदन नयन युगल कर देल ॥४॥