पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२८४

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२६६ विद्यापति । करे कर चारइत उपजल हास । दुहु पुलकाइत गद गद भास ॥६॥ । गरु को तिरोहित भेल । नागर तवह कोर , पर लेल ॥८॥ •------40:---- सखी। ५३० । दुरे गेल मानिनि मान । अमिया सरोवर डुवल कान ॥ २ ॥ मागय तव परिरम्भ । प्रेम भरे सुवदनीं तनु जनि स्तम्भ ॥ ४ ॥ नागर मधुरिम भाप । सुन्दरी गद गद दीर्घ निशास ॥ ६ ॥ कोरे अगरल नाह । करइ संकीरण रस निरवाह ॥ ८॥ लहु लहु चुम्बई क्यान । सरस विरस हृदि सजल नयान ॥३०॥ साहसे उरे कर देल । मनाहि मनोभव तव नहि भेल ।।१।। तोडल जव नवबन्ध । हरि सुखे तबहिं मनेाभव मन्द ॥१४॥ तवे कछु नाहक सुख । भन विद्यापति सुख कि दुख ॥१६॥ सखी। ५३१ अपरुप राधामाधव रडू । दर्जय मानिनि मान भैल भङ्ग ॥ १ चुम्बइ माधव राहि वयान । हेरइ मुखशशी सजल नयीन सखिगण आनन्दे निमगन भेल। दुहु जन मन माहा मनसिज बहुजन आकुल दुहु करु कौर । दुहू दरशने विद्यापति भार । --.:---- हैं जन मन माहा मनसिज गेल ।। ६ ।।