पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२८५

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विद्यापति ।

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विद्यापति । २६७ राधा । ५३२ ।। चड़ई चतुर मोर कान । साधन विनाहि भाङ्गल म मान ॥ २ ॥ योगीवेश धीरे आग्रोल आज । के इह समुझव अपरुप काज ॥ ४ ॥ शस वचने हम भिख लइ मैले । मझु मुख हेरइत गद गद भेल ॥ ६ ॥ कहे तव मान रतन देह मोय । समुझले तव हम सकपट सोय ॥ ८ ॥ जे किछु कहल तब कहइत लाज । कोइ न जानल नागर राज ॥१०॥ विद्यापति कह सुन्दर राइ । किये तुहु समुझवि से चतुराई ॥१२॥ सखी । ५३३ गोकुले देव देयासिनि आओल नगरहि ऐसे पुकारि । अरुन वसन परिहि जटिल वेश धरि कान्ह दारे माहा ठार ॥ २ ॥ शुनि धनि जटिला तेरिते चलि आओल हेरइते चमकित भेल। हमर वधुक रीति दोखे जनि अनमति कहि निज मन्दिर लेल ॥ ४ ॥ देव देयासिनि कान । जटिला वचने सुधामुखि नियहि एक दिठि हेरइ वयान ॥ ६ ॥ कह तव अतनु देव इय पोल हदि माहा पैसल काले । निरजने सोइ मन्त्र जव झारिय तव इह हायव भाल ॥ ८ ॥ एत शुनि जटिला घरहु हे लेअल निरजने दुहु एक ठाम । सच जन निकसत बाहर बैसल पूरल कान्ह मन काम् ॥ १० ॥