पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२९१

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विद्यापति ।

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विद्यापति ।। २७३

करभ कोमल कर सुशोभित जड्घ जुअ आरम्भ । मदन मल्ल वेग्राम कारने गढ़ल हाटक थम्भ ।।१४।। सुकवि एहा कण्ठहारे गाल रूप सकल सरूप । देवि लखिमा कन्त जानए राज सिवासिंह भूप ॥१६॥ सखी । ५४२ कुन्द भमर सङ्गम सम्भापन नयने जगाव अनङ्गे। आशा दृए अनुराग वढायोव भड्मि अङ्ग विभङ्गे ॥ ३॥ सुन्दर हे उपदेश धरिए धरि सुनु सुनु सुललित वानी । नागरिपन किछु कहवा चाहीं कहलहु बुझए सयानी ॥४ । केकिल कूजित कण्ठ वैसाग्रोव अनुरञ्जव रितुराजे । मधुर हास मुख मण्डल मण्डव घड़ि एक तेजव लाजे ॥ ६ ॥ कैतब कए कातरता दरसव गाढ आलिङ्गन दाने ।। केप कइए परवेधल मानव घडि एक न करव माने ॥ ८ ॥ सम पसेवनि सह तनु दरसब मुकुलित लोचन हरी । नखे हनि पिशा मानठाम छीडाशेब सुरत चढाव केली ॥ १० ॥ जूझल मनमथ पुन जे जुझाएब वोलि वचन परचारी । गेले भाव जे पनु पलटावए सेहे कलामति नारी ॥ १२ ॥ रस सिङ्गार सरस कबि गालि बुझए सकल रसमन्ता । राजा शिवसिंह रूपनरायन लाखमा देविक कन्ता ॥ १४ ॥