पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३०१

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विद्यापति ।

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विद्यापति ।। २८३ । समुखे न जाय सधन निशोयास । किए किरन भेल दशन विकाश ॥१३॥ - जागल शाश चलत तव कान । न पूरल आश विद्यापति भान ॥१४॥ राधा । ५६५ कि कहब के सखि आजुक रङ्ग । सपने हि शुतलु कुरुख सङ् ॥ २ ॥ | वड़ सुपुरुख चलि आलु धाइ। शुति रहल सुखे ऑवर झेपाइ ॥ ४ ॥ काँचाले खोलि आलिङ्गन देल । मोहे जगायल तेंहि निद गेल ।। ६ ।। है विहि हे विहि वड दुख देल । से दुख के सखि अवहे ना गेल ॥ ८ ॥ भनइ विद्यापति इह रस धन्द । भेक किं जाने कुसुम मकरन्द ।।१०।।


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राधा । ५६ ६ दरशने लोचन दीघर धाव । दिनमनि तेजि कमल जनि जाव ॥ २ ॥ दान चान्द मिलन सहवास । कपटे नुकाविय मदन विकाश ॥ ४ ॥ सजाने माधव देखल ग्राज 1 महिमा छाडि पलाएल लाज ।। ६ ॥ र भूमि पड़ि गेलि । देह चुकाविअ देहक सेलि ॥ ८ ॥ ९१ वुझावए आन । एकसर सय दिस देखिये काह्न ॥१०॥ अपने हृदय वुझावए अ राधी । अवने जाइ सयन पासे । मुख परेखए दरसि हालें ॥ २ ॥ - उपजु • एहन भाने । जगत भरल कुसुम चाने ॥ ४ ॥