पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३३६

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विद्यापति । - - - - - मोहि छल दिने दिने वाढत देख हरि सक्ने नेह । आवे निज मने अवधारल पहु कपटक गेह ।।६।।


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राधा । ६ ३४ नयनक ओत होइते होएत भाने । विरह होएत नहि रहत पराने ॥ २ ॥ से आवे देसान्तर अतिर भेला । मनमथ मदन रसातले गेला ॥ ४ ॥ कोन देस वसल रतले कोन नारी । सपने न देखए निठुर मुरारि ॥ ६ ४ | अमृत सिचलि सनि चोललह्नि बानी । मन पतिआएल मधुरपति जानी ॥ ८ ॥ हम छल दुदुत न जाएत नेहा । दिने दिने बुझलक कपट सिनेहा ॥१०॥ ---.०:---- राधा । ६ ३५ एहन करम मोर भेल रे । पहु दुरदेस गेल रे ॥२॥ दुय गेल वचनक आस रे । हमहु आयव तुय पास रे ॥४॥ कतेक कयल अपराध रे । पहु सञ छुटल समाज रे ॥६॥ कवि विद्यापति भान रे । सुपरुख न कर निदान रे ॥८॥ राधा । एत दिन हृदय हरख छल आवे सब दूर गेल रे। रॉकक रतन हेड़ाएल जगते सुन भेल रे ॥२॥