पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३३८

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३१६ विद्यापति । -13:02, 19 February 2019 (UTC)~~• • • • • • ••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• मोहि छल दिने दिने बाढ़त देख हरि सक्ने नेह । वे निज मने अवधारल पहु कपटक गैह ॥६॥ राधा ।, नयनक ओत होइते होएत भाने । विरह होएत नहि रहत पराने ॥ २ ॥ से आवे देसान्तर तर भैला । मनमथ :मदन रसातल गेला ॥ ४ ॥ कौन देस वसल रतल कञोन नारी । सपने न देखए निठुर मुरारि ॥ ६ ४ । अमृत सिचलि सनि बोललह्नि वानी । मन पतिआएल मधुरपति जानी ॥६॥ हम छले दुदत न जाएत नेहा । दिने दिने वुझलक कपट सिनेहा ॥१०॥ राधा । ६३५ एहन करम मोर भेल रे । पहु दुरदेस' गेल रे ॥२॥ दुय गेल वचनक आस रे । हमहु आयव तुय पास रे ॥४॥ कतेक कयल अपराध रे । पहु सने छुटल समाज रे ।।६।। कवि विद्यापति भान रे । सुपरुख न कर निदान रे ॥८॥ राधा । एत दिन हृदय हरख छल आवे सब दूर गेल रे। रॉकक रतन हेड़ाएत जगतेओ सुन भेल रे ॥२॥