पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३४६

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३२२ विद्यापति । मन करि तह ऊड़ि जाइअ जॉहा हरि पाइअ रे । पेम परसमनि जानि आनि उर लाइअ रे ॥४॥ सपनहु सङ्गम पाओल रङ्ग बढाओल है। से मोर विहि विघटाओल निन्दओ हेराएल रे ॥६॥ भनइ विद्यापति गाओल धनि धइरज कर रे । अचिरे मिलत तोहि बालम्भु पुरत मनोरथ रे ॥८॥ राधी । ६ ४७ जतए सतत वहसे रसिक मुरारि । ततए लिखिह मोर नाम दुइ चार ॥३॥ सखिगण गणइते लइह मोर नाम । पिया चड विदगध विहि मोर वाम ॥ ४ ॥ दिने एक वैरि पिया लए मोर नाम । अरुन दुलह करे दए जल दान ॥ ६ ॥ इह सब अभरण दिह पिया ठाम । जनम अवधि मोर इह परणाम ॥९॥ निचय मरव हम कानुक ऊदेस | अवसर जानि मागव सन्देस ॥ १० ॥ भनइ विद्यापति सुन वरनारि । दिन दुइ चारि वहि मिलव मुरारि ॥ " सखी । सुन सुन सुन्दर कर अवधान । नाह रसिकवर कहि तुऐं हृदये करसि अनुता" मिलवे सोइ