पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३६४

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विद्यापति । AAAAAAAAAAAAWA राधा । ६७८ जलउ जलधि जल मन्दा । जहा वसे दारुण चन्दा ॥ २ ॥ वचन नहि के परमाणे । समय न सह पचवाणे ॥ ४ ॥ कामिनी पिया विहिनी । केवल रहिलि कहिनी ॥ ६ ॥ अवधि समापित भेला । कइसे हरि वचन चुकला ।। ८ ।। निठुर पुरुष पिरीति । जीव दए सन्तव युवती ॥१०॥ निचल नयन चकोरा । ढरिये ढरिये पल नोरा ॥१२॥ पथये रहओ हेरि हेरी । पिया गेल अवधि : विसरी ॥१४॥ विद्यापति कवि गावे । पुन फले सुपुरुष की नहि पावे ॥१६॥ सखी। ६७६ कै सुखे सतए कै दुखे जाग। अपन अपन थिक भिन भिन भाग ।। ३ कि करति अबला न चैतए हार । एकहि नगर के बहुत वेवहार ॥ ४ माजरि तोरि भमर मधु पीव । से देखि पथिक कण्ठागत जीव ॥ ६ कन्ता कन्त मनोरथ पूर । विरहिनि विरहे वेकुलि झुर ॥६ विद्यापति भन एह रस जान । राए शिवसिंह रूपिनि देइ रमान ॥१°