पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३६६

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१४४ विद्यापति । । सुनि अपझम्प काप मोर देह । गरय गरल विष सुमरि सिनेह ॥ ६ ॥ भनइ विद्यापति सुन वर नारि । धैरज धय रह मिलत मुरारि ॥ ८ ॥ राधा । ६६० सखि हे मोरे बोले पुछव कन्हाइ । हमर सपथ थिक विसरि न हलवे गए तेजि अवसर पाइ ॥ ३ ॥ हुन्हि सञो पेम हठीह हमे लाल हित उपदेस न लैला । तुणतरुअर छायातर वैसलाहु जइसन उचित से भेजा ॥ ४ ॥ एके हमे नारि गमारि सवहु तह दोसरे सहज मतिहीनी । अपनुक दोस दैवके कि कह्व ओ नहि भेलाहे चिन्ही ॥ ६ ॥ अकुलिन बोल नहि ओड़ धीर निरवह धरए अपने वेवहारे । । आगल दुर कर पाहिल चित धर जइसन बडि कुसियारे ॥ ८ ॥ भनइ विद्यापति सुन वर जउवति चिते जन मानह आने । राजा सिवसिंह रूपनराएन सकल कलारस जाने ॥ १० ॥ राधा । ६६१ एहि जग नारि जनम लेल । पहिलहि वयस विरह भेल ॥ २ ॥ । कथि लए दैव जनम देल । कठिन अभाग हमर भैल ॥ ४ ॥