पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३७२

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(५८ विद्यापति, - झम्पि घन गरजन्ति सन्तति भुवन भरि वरसन्तिया । । । । । । । कन्त पाहुन काम दारुण सघने खर शर हन्तिया ॥४॥ - । । । ' कुलिश कत शत पति मुदित मयूर नाचत मातिया । । । । मत्त दादुरि डाके डाहुकि फाटि जाओत छातिया ॥६॥ तिमिर दिग भरि घोर जामिनी अथिर विजुरिक पॉतिया । विद्यापति कह कैसे गमाओव हरि विनु दिन रातिया ॥८॥ । राधा । खेदव मोने कोकिले अलिकुल वारव करकङ्कन झमकाई ।। जखने जलदे धवला गिरि वरिसव तखनुक कौन उपाइ ॥२॥ गगन गरज घन सुनि मन शङ्कित वारिश हरि करु रावे। दखिन पवन सौरभे जदि सतरव दुहु मन दुहु विछुरावे ॥४॥ से सुनि जुवति जीव जदि राखति 'सुन विद्यापति वानी। राजा सिवसिंह इ रस' विन्दक मदने वोधि' देवि आनी ॥६॥ ७१७ राधा । अङ्कुर तपन तापे जदि जारव कि करव वारद मेहे। । इ नव जीवन विरह गमाओव कि, करव से पिया नेहे ॥२॥ । ।