पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति । ३७३ त्रिवली अछलि, तरङ्गिण भैलि । जनि बढियाइ उपटि चलि गेलि ॥ ६ ॥ सहजहि सङ्कट परवस पेम् । पातकभीत परापति जेम ॥ ८ ॥ तोहरि पिरित रीति दुरहि गेलि । कुल सञकुलमतिकुलटाभेल ॥ १० ॥ ७४३ दूती। नदि वह नयनक नीर। पडलि रहए तहि तीर ॥ २ ॥ सब खन भरम गेन । अनि पुछि कह न ॥ ४ ॥ माधव अनुदिने खिनि भेलि राहि । चौदसि चान्दहु चाहि ॥ ६ ।। केओ साख रहलि उपेखि । केयो सिर धुनि धुनि दोख ॥ ८ ॥ केओ कर ससिकर आस | मझे धउलिहु तुअ पास ॥१०॥ विद्यापति कवि भानि । एत सुनि सारङ्ग पानि ॥१२॥ हरसि चलल हरि गेह । सुमरिए पुरुवं सिनेह ॥१४॥ दूती । ७४४ लोचन नौर तटिनी निरमान । ततहि कमलमुखि करत सिनान ॥ २ ॥ वेरि एकु माधव तुय राइ जीवइ । जो तुय रूप नयन भरि पीवइ ॥ ४ ॥ फुयल कवरी'उलटि उर परइ । जनि कनयागिरि चामीर : चरइ ॥ ६ ॥