पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३९८

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३७८ विद्यापति । • ••••••••••••• ••• कङ्कण वलया गलित दुहु हात । फुयल कवरी न सम्बरि माथ ॥ ६ ॥ चेतन मूरछन वुझइ न पारि । अनुखन घोर विरह जर जारि ॥१०॥ विद्यापति कहे निरदय देह । तेजल अव जगजन अनुलेह ॥१२॥ दूती । ७५२ । एके गोरि पातरि ताहे दुख कातरि अरु दुख विरहक जाला । कतय पराण पानि दए राखव गरासय मनमथ वाला ॥२॥ माधव भल नह तुअ अनुरागे । अपन पराण पिआ जा सजे वाटल हिआ ताहि दुख तेहे नहि लागे ॥४॥ करे धरि सिर गहि काहु किछु नहि कहि विरह विखिन घन रोइ । । विरह वेयाधि भेलि सुन्दरि तो विनु औखध कोइ ॥६॥


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दूती । ७५३ लोचन नीर तटिनि निरमाने । करए कमलमुखि तथिहि सनाने ॥ २ ॥ सरस मृणाल कइए जपमाली । अहानस जप 'हरि नाम तोहारी ॥ ४ ॥ वृन्दावन कान्हु धनि तप करई । हृदयवेदि मदनानल वरई ॥ ६ ॥ ।। जिव कर समिध समर करे आगी। करति होम वध होएवह भागी ॥८॥