पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३९९

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विद्यापति । ३७६ चिकुरवरहिरे समरि करे लेअइ । फल उपहार पयोधर देअइ ॥१०|| भनइ विद्यापति सुनह मुरारी । तुय पथ हेरइते अछ वरनारी ॥१३॥ दूती । फूजतेको चिकुर राहुक जोर । रोए सुधाकर कामिनि कोर ॥ २ ॥ अरे कन्हु अरे कन्हु देखह आए । वडिअ मधथ देअ वाद छडाए ॥ ४ ॥ दुइ अञ्जुलि भरि दुहु पुज शीव । कामदहन मोर राखह जीव ॥ ६ ॥ जदि न जाएव तोहे अपजस भेल । ससधर कला गगन चलि गेल ।। ६॥ भनइ विद्यापति हरि मन हास । राहु छुड़ाए चॉद दिग्र वास ॥१०॥ दूती । अकामिक मन्दिर भाल वहार । चउदिस सुनलक भमर फेंकार ॥ २ ॥ मुरुछि खसल महिन रहलि थीर । न चेतए चिकुर ने चेतए चीर ॥ ४ ॥ केश्रो सखि गावए केओ कर चार । केश्रो चान्दन गदे करय सँभार ॥ ६ ॥ केओ वोल मते कान तर जोलि । केओ केसीकल खेदडाकिनी वाल ॥ ८ ॥ अरे अरे अरे कान्हुकिरहसि वोरि। मदन भुअङ्गे डसु वालहि तोरि ॥ १० ॥ भनई विद्यापति एहो रस भान । एहि विपगारुड़ एक पय कान्ह ॥ १२ ॥