पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४११

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विद्यापति ।। ३६१ रूप कि कहव मन्ने विसेखि १ गए निरुपिअ फटित दोख ॥ ६ ॥ नयन नलिन सम विकास । चान्दह तेजल विरह भास ॥ ८॥ दिने रजनी हेरए वाट । जनि हरिनी विछुरल ठाट ॥१०॥


दूती । ७७५ सुन सुन माधव कर अवधान । तो विनु दिवस रजनि नहि जान ॥ २ ॥ जतहु कलानिधि सपुरन भेल । ततहु कलावति छिन भइ गेल ॥ ४ ॥ निल नलिनि लए जव कर वाय । हृदये रहु भय उडि जनु जाय ॥ ६ ॥ -- --- दूती । ७७६ सुजन वचन हे जतने परिपालए कुलमति राखए गारि । से पहु वरिसे विदेस गमाश्रोत की होइति वर नारि ॥२॥ कन्हाई पुनु पुनु सुवदनि समाद पठाल अवधि समापाल आए ॥३॥ साहर मुकुलित करए कोलाहल पिक भमर करए मधुपनि । मधुजामिनि है कइसे कए गमाउति तोह विनु तेजति परान ॥५॥ कुच रुचि दुरे गेल देह अति खिन भेल नयन गरए जलधारा । विरह पयोधि काम नाव तहि आस धरए कड़हार ॥७॥