पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४३१

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विद्यापति ।

•~•~ • • •••• भमर देखि भन भावे पराएल गहए सरासन काम लो । भनइ विद्यापति रूपनराएन सिरि सिवसिंह देव नाम लो ॥६॥ ---०.-- सखी । ८०४ गगन वलाहकै छाडल रे वारिस काल अतीत ।। करिय विनति मैं हूँ अायव जन्हि विनु तिहुयन तीत ॥२॥ आवहो सुमति संघातिनि रे वाट निहारय जॉउ । कुदिना सब दिन नहि रह सुदिवस मन हरखाउ ॥४॥ सामर चन्दा उगलाह रे चान्दै पुन गेलाह अकोस । एतवहि पियाकै अयवा रे पलटत विरहिनि सॉस ॥६॥ सूतिये दुरहि निहवा रे जति दुर हियरा धाव । कि करत हियरा आकुला रे आगिहि बात न पावे ॥८॥ विद्यापति कवि गएवा रे रस जनिए रसमन्त । मन्ति महेसर सुन्दर रे रेणुक देवि कन्त ॥१०॥ राधा । ६०५ हमर मन्दिरे जव आग्रोव कान । दिठि भरि हेरव से चान्द वयान ॥ २ ॥ नहि नहि चोलव जव हम नारि । अधिक पिरीति तव करव मुरारि ॥ ४ ॥