पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४३२

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विद्यापति ।।

| राधा । ८१० जे दुखदायक से सुख देथु । अबला जन से आसिस लेथु ॥ २ ॥ पिय मोर आयल आने परोस । विरह व्यथा जनि गेल लख कोस ॥ ४ ॥ नहि छथि उगथु सहस दिजराज । कुदिवस हितकर अनहित काज ॥ ६ ॥ त्रिविध समीर वहथ दिनराति । पञ्चम गावथु कोकिल जाति ॥ ८॥ से गृह गृह नित उत्सव आज । विद्यापति भन मन निव्र्याज ॥१०॥ राधा । ६११ दारुण वसन्त जत दुख देल । हरिमुख हेरइते सब दूर गेल ॥ २ ॥ जतहुँ अछल मोर हृदयक साध से सब पूरल हरि परसाद ॥ ४ ॥ कि कहव रे सखि आजक आनन्द शोर । चिरदिने माधव मान्दरे मोर ।। ६ ॥ रभस आलिङ्गने पुलकित भेल । अधरक पाने विरह दूर गेल ॥ ८॥ भनहि विद्यापति आर नह आधि । समुचित औषधे न रह वेयाधि ।।१०॥ राधा । ८१२ विह मोर परसन भेल । हरि मोहि दरशन देल ॥ २ ॥ देखलि वदन अभिराम । पूरल सकल मन काम ॥ ४ ॥ ५