पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४३६

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४१२ विद्यापति । एक दिसमनिमयनव निधि हेम।अशोका दिस नवरस सुपुरुप पेम ॥ ८ ॥ निकुती तौलि कएल अनुमान | प्रीति अधिक थी के नहि जान ॥१०॥ प्रीतिक सम हे दोसर नहि आन। जाहि तुलना दिअ अपन पनि ॥११॥ भनइ विद्यापति अनुपम रीति । दम्पति के हो अचल पिरीत ।।१४।। राधा । ८१५ दिदिन छिल विहि मोहे प्रतिकूल । पिया परसादे भेल अनुकूल ॥ २ ॥ अछल दारुण विरहे विभोर । तुरित आवि पिया मोहे लेल कोर ॥ ४ ॥ तृषित चातक जनि नव घन मैलि । भुखल चकोर चाँद करु केति ॥ ६ ॥ जनि वनजानले दगध परान । ऐसन होयल अमिया सिनान ॥ ८॥ थिो । ८१६ अरे रे परम प्रेम सजनि नयन गोचर कौन दिन जनि नाह नागर गुणक आगर कला सागर रे । जखने मधुरिपु भवन आओव दूरे रहि मुझे कहि पठाओव 'सकल दृखन तेज भूखन समक सजिव रे ॥२॥ लाज नति भये निकटे व रसिक व्रजपति हिये सम्भाव * कौशल कोप'काजर तबहु राजव रे । । । ।