पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४३७

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| विद्यापति ।। कबहे कोकिल मधुर कुहु कुहु कबहुँ कपोत कण्ठ रव मुह ' करजशासन केला आसन कछु न गोयब रे ॥४॥ ।। कबहुं कर गहि कण्ठ लाओव कबहुं दुहु मेलि सङ्गीत गाग्रोव कबहुं कौतुक कोप किये रस राखि रुषव रे। । । । । । आश देइ पिया पाश राखव जतन करि हरि कत न भाखव | समय बुझि तहि माघ होइ पुन साड्घि होयव रे ॥६॥ वचन छले जव साध मानव मीनकेतन जुझत जानव मदन मय मत हाती मातव अचिरे मुषव रे। एतहु कहिते सखी तुरिते आयोलि सुधा सम वात लाल | कानु सुन्दर चतुर मन्दिर निकट आओल रे ॥८॥ अचिरे विहि किये पूरव साधा हरखि हसि हसि बोलय राधा शरद चॉद चकोर मिलल सिंह भूपति गावइ रे ॥६॥ सखी । ८१७ अधर सुधा मिठि दुधे धवरि डिठि मधु सम मधुरिम वानी रे ।। अति अरथित जे जतने न पाइग्र सवे विहि तोहि देल आनि रे ॥३ । । । जनु रुसह भाविन भाव जनाइ । तुय गुने लुबुधल पहु अधिक दिने पाहुन आएल मधाइ ॥४॥