पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४३८

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विद्यापति ।। जस गुन झखइते झामरि भैलि हे रयनि गमोलह जागि रे । से निधि निधि अनुरागे मिलल तोहि कन्हु सम पि अनुराग रे ॥६॥ भनइ विद्यापति गुणमति राखए वालमुके अपराध रे ।। राजा शिवसिंह रूपनराएन लाखमा देवि अराधरे ॥८॥ सखी । ८१८ जा लागि चोदन विख तह भेल चॉद अनल जा लागि रे । जा लागि दखिन पवन शैल सायक मदन वैरि जा लागि रे ॥२॥ से कान्हु कते दिने पाहुन हसि न निहारसि ताहि रे । । हृदयक हार हठे टारह जनु पेम सुधा अवगाह रे ॥४॥ रोयइते नारे आतुर भैल लोचन रयनि जाम जुगे गेलि रे । फूजल चिकुर वीर नहि चेतए हार भार तनु भेल रे ॥६॥ तप तौर तरुण करुने कान्हु आएल कॉइ बढ़ावसि मान रे । , जे न अछल मन से भेल सपन कवि विद्यापति भान रे ॥८॥ "राधा । ८१६ कत न दिवस लए अछल मनोरथ हरि सञो चढ़ाव नेहा । * सफल भेज विहि:अमिमत देल सहजे आएल मझु गेहा ॥२॥