पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४५

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विद्यापति । राधा । ६८ कि कहब है सखि इह दुख ओर । चॉश निशीस गरल तनु भोर ॥२॥ हठ सजे पैसय श्रवणक माझ । तैखने विगलित तनु मन लाज ॥४॥ विपुल पुलके परिपूरय देह । नयने हेरि हेरय जनु केह ॥६॥ गुरुजन समुखहि भावतरङ्ग । यतनहि बसने झॉपि सब अङ्ग ॥८॥ लहु लहु चरणे चलिय गृह माझ । दैव विहि आजु राखल लाज ॥१०॥ तनु मन विवश खसय निविवन्ध । की कहव विद्यापति रहु धन्द ॥१२॥ कत न बेदन मोहि दोस मदना । हर नहि वला मोहि जुवति जना ॥२॥ विभूति भूपन नहि चान्दनक रेनु । बाघळाल नहि मोरा नेतक बसनू ।।४।। नहि मोरा जटाभार चिकुरक वेनी । सुरसरि नहि मोरा कुसुमक सेनी ।।६।। चन्दनक विन्दुमोरानहिइन्दुगोटा । ललाट पावकनहि सिन्दुरकफोटा॥८॥ नहि मोरा कालकूट मृगमद चारु । फनिपतिनहि मोरा मुकुता हारु ॥१०॥ भनइ विद्यापति सुन देव कोमा । एकपए दूपन अछ योहि नामक बीमा॥१२॥