पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४५४

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| ४२८ विद्यापति । जय देवि दुर्गे दुरितहाणि । दुर्गमारि विमर्दकारिणि ' । भक्तिनम्र सुरासुराधिप मङ्गलायतरे । । । गगनमण्डल गर्भगाहिनि समरभूमिषु सिंहवाहिनि परशु पाश कृपाणशायक शङ्ख चक्रधरे ॥४॥ अष्ट भैरवि सङ्गशालनि सुकर कृत्तकपालकदम्बमालिनि । दनुजशोणित पिशतवात पारणारभसे ।। संसारबन्धनिदानमोचन चन्द्रभानुकृशानु लोचिनि योगिनीगण गीत शोभित नृत्यभूमि रसे ॥६॥ जगति पालन जनन मारण रुप कार्य सहस्र कारण हरिविरञ्चि महेश शेखर चुम्व्यमान पदे ।। सकल पापकला परिच्युति सुकवि विद्यापति कृत स्तुति तोपिते शिवसिंह भूपति कामना फलदे ॥८॥ भल हर भले हरि भल तुअ कला । खने पित वसन : खनहि बघछला ॥ २ ॥ खने पञ्चानन खने भुज चारि । खने शङ्कर खने देव मुरारि ॥ ४ ॥ खने गोकुल भए ।चराइअ गाए । खने भिखि मॉगिअ डमरु बजाए ॥ ६ ॥ गोविन्द भए लिअ महदान । खनहि भसमे भरु कॉखः 'वोकाने ॥ ८ ॥