पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४५६

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| विद्यापति । जय देवि दुर्गे दुरितहारिणि दुर्गमारि विमर्दकारिणि | भक्तिनम्र सुरासुराधिप मङ्गलायतरे । गगनमण्डल गर्भगाहिनि समरभूमिषु सिंहवाहिनि परशु पाश कृपाणशायक शङ्ख चक्रधरे ॥४॥ अष्ट भैरवि सड़शालिनि सुकर झूचकपालकदम्बमालिनि दनुजशोणित पिशितवात पारणारभसे । संसारबन्धनिदानमोचन चन्द्रभानुकृशानु लोचिनि योगिनीगण गीत शोभित नृत्यभूमि रसे ॥६॥ जगति पालन जनन मारण रुप कार्य सहस्र कारण हरिविरच्चि महेश शेखर चुम्व्यमान पदे । सकल पापकला परिच्युति सुकवि विद्यापति कृत स्तुति तोपिते शिवसिंह भूपति कामना फलदे ॥८॥ भल हर भल हरि भले तुअ कला । खने पित वसन खनहि बघछला ॥ २ ॥ खने पञ्चानन खने भुज चारि । खने : शङ्कर खने देव मुरारि ॥ ४ ॥ खने गोकुल भए चराइअ गाए । खने भिखि मॉगिअ डमरु बजाए ॥ ६ ॥ " गोविन्द भए लिअ महदान । खनहि भसमे भरु कॉखः 'वोकान ॥ ८ ॥