पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति । भनइ विद्यापति सुन जगमाता । ओ नहि उमत त्रिभुवन दाता ॥८॥ पाहुन आएल भवानी वाघ छाल । वइसए दिअ आनी ॥ २ ॥ वसह चढ़ल बुढ़ आवे । धुथुर गजाए भोजन हुनिं भावे ॥ ३ ॥ भसम विलेपित आड़े । जटा वसथि सिर सुरसरि गाड़े ॥ ५ ॥ हाड़माल फनिमाल सोभै । डमरु बजावे हर जुवतिक लोभे ॥ ७ ॥ . विद्यापति कवि भाने । ओ नहि बुढ़वा जगत किसाने ॥ ६ ॥ ए मा कहए मोजे पुछ तोहीं । ओहि तपोवन तापसि भेटल कुसुम तेड़िए देल मोही ॥२॥ ऑजलि भरि कुसुम तोड़ल जे जत अछल जॉहा ।। तीनि नयने खने मोहि निहारए वइसलि रहलि जॉहा ॥४॥ गरा गरल नयन अनल सिर सभइहि ससी । डिमि डिमि कर, डमरु बाजए एहे आएल तपसी ॥६॥ सिर सुरसरि भ्रम् कपाला हाथ कमण्डलु गेाटा। वसह चढ़ल आएल दिगम्बर विभुति कएल फोटा ॥८॥