पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४६४

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विद्यापति । खिर न खाए हर चुकति गजाए। एहन उमत कोने जोहल जमाए ॥१२॥ | भनइ विद्यापति एहो रस भनि । ॐ नहि उमता जगत किसान ॥१४॥ १७ जखने शङ्करे गैर करे धीर अनलि मण्डप माझ । सरद सेंपुन जनि ससधर उगल समय सॉझ ॥२॥ चौदह भुअन शिव सोहान गौरि राजकुमारि । हेरि हरिखित भेलि मदाइनि आएल जनि जभारि ॥४॥ हेमत सरिर पुलके पूरल सफल जनम मोरि ।। हरि विराञ्च दुहू जन वैसल हरके देल मोझे गोरि ।।६। । नारद तुम्वुर मङ्गल गावथि आर कत ने नारि।.. . कौतुक कोवर कौशले कामिनी सवे सबै देअ गारि ।।८।। भन विद्यापति गौरि परीनय कौतुक कहए न जाए । साप फुफुकारे नारि पड़ाइलि वसन ठाम नड़ाए ॥१०॥ १८ उमता न तेजए अपनि वानि । वस ससुरा कत कर' उवानि ॥ २ ॥ गङ्गाजले सिचु रङ्ग भूमि । पिछरि खसल हर घूम घूमि ॥ ४ ॥ " गोरी तोरए जाए । करकङ्कन फनि उठ फेंफाए ॥ ६ ॥ सवतहु चोल गिरिजमाए । वसह चढ़ल हर 'रुसल जाय ॥ ८ ॥