पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४६९

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विद्यापति। ४३७। यमकिङ्कर मोर कि करत अङ्गे । रह अपराधी वलिया , सङ्गे ॥ ६ ॥ जे सवे कएल हर सवे मोर दोसे । से सवे कएल हर तोहरे भरोसे ॥ ८॥ भनइ विद्यापति शङ्कर सुनु । अन्तकाल मोहि विसरह जन ॥१०॥ | हम सौ रुसल महेशे । गौरी विकल मन करथि उदेशे ।। २ ।' पुछिय पॅथुक जन तोही । ए पथ देखल कहुँ बूढ वटोही ॥ ४ ॥ | अङ्गमे विभूति अनूपे । कतेक कहव हुनि जोगिक रुपे ।। ६ ।। विद्यापति भन ताही । गौरी हर लए भेलि चताही ॥ ८ ॥


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| २१ केहु देखल नगना । भिखामगइतेवुल ग्राङ्नेश्राना ॥ २ ॥ उगन उमत केहु देखल विधाता। गोरिक नाह अभय वरदाता ॥ ४ ॥ विभुति भुपन कर वीस अहारे । काठ वासुकि सिर सुरमरि धारे ॥ ६ ॥ केलि भुत सङ्गे रहए मसाने । तैलोक इमर हर के नहि जानं ॥ ८ ॥ | उगना हे मोर कतय गेला ।'कतय गन्ता गिच कि । इह, भन्ता || ३ || | भाड नहि चट्या मि वेसलाह । जहि दृरि श्रनित नि ‘टता, || ४ ||