पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति । ३६ -- - -- - - - - - - राधा । प्रथमहि हृदय बुझौलह मोहि । बड़े पुने बड़े तपे पौलिस तोहि ॥ २ ॥ काम कला रस दैव अधीन । मञ विकाएब तळे बचनहु कीन ॥ ४ ॥ दूति दयावति कहहि बिसेखि । पुनु वेरा एक कइसे होएत देखि ॥ ८॥ दुर दुरे देखल जाइते आज । मन छल मदने साहि देव काज ॥८॥ ताहि लए गेल विधाता बाम । पलटलि डीठि सून भैल ठाम ॥१०॥ (२) पैलिस=पाइ । (८) साहि=साधि।


राधा। |७४ एक दिन हेरि हेरि हासिहास जाय । अरु दिन नाम धय मुरलि बजाय ॥२॥ श्राजु अति नियरे करल परिहास । नजानिय गोकुल ककर विलास ॥४॥ साजनि यो नागर सामराज । मूल विनु परधने माग वेयाज ॥६॥ परिचय नहि देखि आन काज । न करय सम्भ्रम न करय लाज ॥८॥ अपना निहारि निहरि तनु मोर । देई आलिङ्गन भए विभोर ॥१०॥ खने खने वैदगधि कला अनुपम । अधिक उदार देखिय परिनाम ॥१३॥ विद्यापति कह आरति ओर । बुझइ न बुझइ इह रस भौर ॥१४॥