पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४७३

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विद्यापति । तुरय छाडि ' चढ़ बसह पीठि । लाजे मरिअ जञौ हेरिअ दीठि ॥ ६ ॥ भनइ विद्यापति सुनह गरि । हर नहि उमता तहहि भेरि ॥ ६ ॥ २६ पञ्च वदन हर भसमे धवला । तीनि नयन एक वरए अनला ॥ २ ॥ दुखे बोलए भवानी । जगत भिखारि हम मिलल सामी ॥ ४ ॥ विपधर भूषन दिग परिधाना । विनु चित्ते इसर नाम उगना ॥ ६ ॥ भनइ विद्यापति सुनह भवानी। हर नहिं निधन जगत सामी ॥ ८॥ शिव हे सेवए अयलॉहु सुख लागी । विषम नयन अनुखने वर आगी ॥ ३ ॥ चसहा पड़ाएल आगे । पैसि पताल चुकाएल नागे ॥ ॥ ससि उठि चलल अकासे । गोरि चललि गिरिराजक पासे ॥ ६ ॥ उचित बोलए नहिं जाइ । उमत बुझओव कोने उपाइ ॥ ८॥ भनङ विद्यापति दासे । गौरी शङ्कर पुरावथु असे ॥१०॥ वैरि बेरि अरे शिव मोजे तोके वोलञो किपि करिय मन लाई। विनु समरे हर भिखिए पए मागिय गुन गौरव दूर जाइ ॥२"Pr