पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४७८

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| ४४४ विद्यापति । ४० खेले लखमी भवानि रितु वसन्त । गरि भुकुटिल देवि केरे अनन्त ॥ २ ॥ इसर नाम धरु कोन अज्ञान । छाड़ि तुरग बसहा पलान ॥ ४ ॥ जटा भुजङ्गम अङ्ग चाह । एहन उमत गौरा तोहर नाह ॥ ६ ॥ मछ कछ वाधा वराह । चामन कुवड़ा तोहर नाह ॥ ८॥ दछिना जाचथि वलिक थान । तच न बरजलह अपन कान्ह ॥१०॥ | कुलविहीन तपसीक वेस । सङ्ग लागि गौरि फिरह देस ॥१२॥ तोहर नहि सुर मुनिक लाज । सामि नचौलह कोन काज ॥१४॥ उदधितनया हरु तोहर ज्ञान । खोजि वियहलह अहिर कान ॥१६॥ सदा वसथि जमुनाक तीर । परजुवतीकेर हरथि चीर ॥१८॥ इस शिवशङ्कर ओ मुरारि । दुहु जनिक भले होइछ रारि ॥२०॥ भन जयदेव हरि हरक दास । नीलकण्ठ हरि पुरथु आस ॥२२॥ कञ्चने झोरि सिन्दुर भरल भसमे भरु बोकान । बसहा केसरि मयुर मुसा चारिहु पलु पलान ॥२॥ डिमिक डिमिक डामरु बाजइ इसर खेलइ फागु । भसमे सिन्दुरे दुयो खेड़ा एकहि दिवस लागु ॥४॥ सञ्झाय सिन्दुर भरु सरससति लछिहि भराल गौरि । इसर भसमे भरु नरायण पीत वसन बोरि ॥६॥