पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/५०३

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विद्यापति ।। सखि हे कमलनयन परदेस । हमे अबला अतिदीन दुखित मति श्रवने न सुनिअ सन्देस ॥७॥ चातक पोतक हरखित नाचथि सुखे सिखि नाचथि रङ्गे।। कन्त कोर पइसि चपला विलसथि से देखि झामर अड़े ॥६॥ नलिनी नीरे लुकाइलि माइ हे कन्त न आएल पास । भमर चरन पञ्चासे अधिक अध वसु तेजि करति गरास ॥११॥ नव हरि तिलक वैरी सख यामिनी कामिनी कोमल कॉति । यमुना जनक तनय रिपु घरणी सोदर सुय कर शाति ॥२॥ माधव तुय गुने लुवधति रमनी । अनुदिने खीन तनु दनुज दमन धनी भवनज वाहन गमनी ॥४॥ दाहिन हरितह पाव परभव एत सवे सह तुय लागी । चेरि एक शर सागर गुनि खाइति वधक होयव तोहें भागी ॥६॥ सारङ्ग साद विपाद वढावय पिक धुनि सुनि पछतावे ।। अदितितनय भोअन रुचि सुन्दर दशमी दशा सग आवे ॥८॥ विद्यापति भन गुनि अबला जन समुचित चलु नि गैहा। राजा शिवसिंह रूपनरायन लखिमा लखिमी देहा ॥१०॥. ।