पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/५०४

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| ४६८ ०० ००० ० ००० विद्यापति । ००००००००००• •15:14, 15 February 2019 (UTC)15:14, 15 February 2019 (UTC)नीलम (talk) 15:14, 15 February 2019 (UTC) हरि सम आनन हरि सम लोचन हरि तह हरि वर आगी ।। हरािह चाहि हरि हरि न सोहावए हरि हरि किए उठ जागी ॥२॥ माधव हरि रहु जलधर छाई । । हरि नयनी धनि हरि घरिनी जनि हरि हेरइते दिन जाइ ॥४॥ हरि भेल भार हार भेल हरि सम हरिक वचन न सोहावे । हरिहि पइसि जे हरि जे नुकाएल हरि चढि मोर बुझावे ॥६॥ हरिहि वचने पुनु हरि सञो दरसन सुकवि विद्यापति भाने ।। राजा शिवसिंह रूपनराअन लाखमा देवि रमाने ॥८॥ दखिन पवन बह मदन धनुपि गह तेजल सखी जन मेरी। हारि रिपु रिपु तासु तनय रिपु कए रहु ताहरि सेरी ॥२॥ माधव तुअ विनु धनि बड़ि खिनी । वचन धरव मन बहुत खेद कर अवुद ताहेरि कहिनी ॥४॥ मलयानिल हार तसु पीव ए मनमथ ताहि डराइ । , आतुर भए जत इरहि निवारव तुअ विनु विरह न जाइ ॥६॥ माधव आवे बूझल तुअ साजे । । । । । पश्च दुन दह इन दह गुन माए गुन से देह कोन काजे ॥२॥