पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/५१

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विद्यापति । सखी से सखी। ७६. सपनेहु न पुरल मेनक साधे । नयने देखल हरि एत अपराधे ॥ २ ॥ मन्द मनोभव मन जर आगी । दुलभ पेम भेल पराभव लागी ॥ ४ ॥ चॉद वदनी धनि चकोर नयनी । दिवसे दिवसेभेल चउगुन मालनी ॥६॥ कि करति चॉदने की अरविन्दे । विरह विसर जञो सूतिअ निन्दे ।।८।। अबुध सखी जन न बुझए आधी । शान ग्रौपध कर शान बेयाधी ॥१०॥ मनसिज मनके मन्दि बेवया । छाड़ि कलेवर मानस बेथा ॥१२॥ चिन्ता ए विकल हृदय नहि थारे । वदन निहारि नयन वह नीरे ॥१४॥ (११) वेवथा=व्यवस्था । माधव की ठूती । ठूती । | ८० ए सखि ए सखि न बोलह आन । तुअगुने लुबुधल निते व कान ॥ २ ॥ निते निते निअर आव विनु काज । वेकतेश्रो हृदय नुकावए लाज ॥ ४ ॥ अनतहु जइते एतहि निहार । लुबुधल नअन हटए के पार ॥ ६ ॥ से अति नागर तने तसे तूल । एक नले गॉथ दुई जनि फूल ॥८॥ भनइ विद्यापति कवि कण्ठहार । एकसर मनमथ दुइ जिव मार ॥१०॥ ६। इटप=फिराना। -- --