पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/५४

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विद्यापति । टूती । ८५ अपना काज कओन नहि बन्ध । कैन करए निग्न पति अनुबन्ध ॥ २ ॥ अपन अपन हित सव केओ चाह । से सुपुरुष जे कर निरबाह ॥ ४ ॥ साजन ताक जिवन थिक सार । जे मन दए कर पर उपकार ॥ ६ ॥ आरति अरतल आवए पास । अछइते बथुनहि करिअउदास॥ ८॥ । से पुनु अनत गेले पाव । अपना मन पए रह पचताव ॥१०॥ भनइ विद्यापति दैन न भाख । चड़ अनुरोध बड़े पए राख ॥१२॥ (८) वथु=घस्तु ॥ -०६ दूती । मुदित नयने हिय भुज युग चापि । सूति रहल हँहि किछुन अलापि॥ २ ॥ परसड़े करलहि नामहि तोरि । तबहि मिलिअऑखिचाहे मुख मोरि ॥ ४ ॥ शुन धनि इथे नहि कहि आन छन्द । तेाहे अनुरत भेल सामर चन्द ॥ ६ ॥ जोइ नयन भाङ्ग न सह अनङ्ग । सोइ नयने अब नौर तरङ्ग ॥ ८ ॥ जोइ अधर सदा मधुरिम 'हास । सोइ नीरसभेल दीघ निशास ॥१०॥ विद्यापति भन मियि नह भाखि । गोबिन्द दासकह तुहु तहि साखि ॥१२॥