पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/५७

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विद्यापति । ४६. दूतो । ६१ प्रथम सिरीफल गरवे गमोलह जौं गुनगाहक आवे । गेल जउवन पुनु पलटि न आवए केवल रहे पचतावे ॥ २ ॥ सुन्दार बचने करह समधाने । तोह सनि नारि दिवस दस अछलिहु ऐसन उपजु मेहि भाने ॥ ४ ॥ जउवन रूप तावे धरि छाजत जावे मदन अधिकारी । दिन दस गेले सेहओं पडाएत सकल जगत परचारी ॥ ६ ॥ विद्यापति भन जुवति लाख लह पड़ल पयोधर तुले ।। दिने दिने आगे सखि ऐसनि होयबह घोसिनी घोरक मूले ।। ८ ।। दूती । से अति नागर तोळे सच सार । पसरओ मल्ली पेम पसार ॥ २ ॥ जौवन नगरि वेसाहव रूप । तते मुल होइह जते सरूप ।। ४ ॥ साजन रे हरि रस बनिजार । गोप भरमे जनु वोलह गमार ॥ ६ ॥ विधि बसे अधिक कर जनु मान । सोरह सहस गोपीपति कान्ह ॥ ८॥ तोह हुनि उचित रहत नहिं भेद । मनमथ मधये करब परिछेद ॥१०॥